kavy Hetu (काव्य-हेतु)
काव्य-हेतु (kavy Hetu)
'हेतु' शब्द का अर्थ है ''हेतुर्ना कारण'' अर्थात हेतु कारण को कहते हैं।
अतः 'काव्य-हेतु' का अर्थ है- 'काव्य के उत्पत्ति का कारण'। किसी व्यक्ति
में काव्य रचना की सामर्थ्य उत्पन्न कर देने वाले कारण 'काव्य हेतु कहलाते हैं।
बाबू गुलाब राय के शब्दों में, ''हेतु का अभिप्राय उन साधनों से है
जो कवि की काव्य रचना में सहायक होते हैं।''
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य हेतु के तीन भेद बताए गए हैं- (1) प्रतिभा
(2) व्युत्पत्ति और (3) अभ्यास। इनमें प्रतिभा सर्वप्रमुख काव्य-हेतु है,
जिसे कवित्व का बीज माना गया है। आचार्य भामह ने 'काव्यालंकार'
में कवि की प्रतिभा को ही काव्य-सृजन का मूल हेतु माना है-
'गुरुपदेशादध्येतुं शास्त्रं जडधियोऽप्यलम्।
काव्यं तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावत: ।।
आचार्य दण्डी ने नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल शास्त्र ज्ञान तथा सुदृढ़ अभ्यास को
संयुक्त रूप में काव्य सृजन का हेतु माना है-
''नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।
अमन्दाश्चाभि योगोऽस्या: कारणं काव्य संपदः।।''
आचार्य वामन ने 'काव्य-हेतु' के स्थान पर 'काव्यांग' शब्द का प्रयोग किया है।
इन्होंने लोक, विद्या और प्रकीर्ण को काव्यांग (काव्य-हेतु) स्वीकार किया है-
''लोको विद्याप्रकीर्णस्य काव्यांगानि।''
यहाँ आचार्य वामन का लोक से तात्पर्य है लोक व्यवहार। विद्या के अन्तर्गत
उन्होंने शब्द शास्त्र, अभिधान, कोश, छन्द शास्त्र, कला, कामशास्त्र तथा
दण्डनीति को लिया है। स्पष्टतः विद्या से उनका अर्थ 'व्युत्पत्ति' है।
प्रकीर्ण के अन्तर्गत उन्होंने लक्षज्ञत्व (काव्य-परिचय), अभियोग
(काव्य रचना का उद्योग), वृद्ध सेवा, प्रतिभा और अवधान
(चित्त की एकाग्रता) को लिया है। वस्तुतः वामन प्रतिभा को ही काव्य-सृजन
का मूल हेतु मानते हैं-
''कवित्वस्य बीजम् प्रतिभानं कवित्व बीजम्।''
आचार्य रुद्रट ने शक्ति (प्रतिभा), व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य-हेतु
मानते हुए कहा है- ''काव्य में असार वस्तु को दूर करने, सार ग्रहण
करने तथा चारुता लाने के कारण शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास,
ये तीनों स्थान पाते हैं।'' इन्होने प्रतिभा को 'शक्ति' कहा है
तथा इसके दो भेद किये- (1) सहजा और (2) उत्पाद्या।
सहजा नैसर्गिक शक्ति है तथा उत्पाद्या व्युत्पत्ति शक्ति है।
आचार्य मम्मट ने शक्ति, निपुणता तथा अभ्यास को संयुक्त रूप में हेतु
स्वीकार किया है-
''शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात्
काव्यज्ञ शिक्षाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।।''
जयदेव ने 'चन्द्रालोक' में कहा है- ''श्रुत (व्युत्पत्ति) और अभ्यास
सहित प्रतिभा ही कविता का हेतु है, जैसे मिट्टी-पानी के संयोग से बीज
बढ़कर लता के रूप में व्यक्त होता है।
पण्डित राज जगन्नाथ ने व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य का हेतु न
मानकर प्रतिभा का हेतु स्वीकार किया है। उनका कहना है काव्य का
कारण के केवल कवि में रहने वाली प्रतिभा है-
''तस्य च कारणं कविगता केवलां प्रतिभा।''
प्रतिभा- काव्य हेतुओं में प्रतिभा का स्थान सर्वोपरि है।
प्रतिभा नित्य नवीन उद्भावना करने वाली मानसिक शक्ति है। भट्ट तौत
ने नये-नये भावों के उन्मेष से युक्त प्रज्ञा को प्रतिभा कहा है-
''प्रज्ञा नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा विदुः।''
आचार्य अभिनव गुप्त ने प्रतिभा को अपूर्व वस्तुओं के निर्माण में सक्षम कहा है-
''प्रतिभा अपूर्ववस्तु निर्माणक्षमा प्रज्ञा।''
आचार्य राजशेखर ने प्रतिभा के दो भेद किये हैं-
(1) कारयित्री प्रतिभा और (2) भावयित्री प्रतिभा। कवि का उपकार करने
वाली प्रतिभा को कारयित्री प्रतिभा कहते हैं तथा सह्रदय का उपकार करने
वाली प्रतिभा को भावयित्री प्रतिभा कहते हैं।
आचार्य वाग्भट ने लिखा है- ''प्रसन्न पदावली, नये-नये अर्थो तथा उक्तियों
का उद्वोधन करने वाली कवि की स्फुरणशील सर्वतोमुखी बुद्धि को प्रतिभा कहते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रतिभा को ''अन्तःकरण की उद्भावित क्रिया'' कहा है।
व्युत्पत्ति- व्युत्पत्ति का अर्थ है 'बहुज्ञता' या 'प्रगाढ़ पाण्डित्य' राजशेखर
ने लिखा है उचित-अनुचित का विवेक व्युत्पत्ति है-
''उचितानुचित विवेको व्युत्पति:।''
अभ्यास- काव्य रचना के लिए निष्ठापूर्वक बार-बार किये जाने वाले
प्रयत्नो की अखण्ड श्रृंखला ही अभ्यास है। राजशेखर के अनुसार,
''निरन्तर प्रयास करते रहने के अभ्यास कहते है।''